Description
स्त्री होने का सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि उसके अनुभव पुरुषों से कई मामलों में ज्यादा और श्रेष्ठ होते हैं । वह स्त्री के साथ–साथ पुरुषों के मानसिकता को ना सिर्फ बेहतर समझती है, बल्कि उसको बेहतर बनाने की कोशिश भी करती है। जब वह एक मां होती है तब बेटे और बेटी दोनों को ही पालती- पोषती है । इस लिहाज से वह दोनों को ही सृजित करती है । यह कहना ग़लत होगा कि एक स्त्री, पुरूषों के भीतर के दर्द और उलझनों को बेहतर नहीं समझ पाती है। आमतौर पर स्त्रियां अपने आस – पड़ोस के सारे पुरुषों की मानसिकता से भली – भांति परिचित होती हैं। सही और ग़लत की पहचान भी कर लेती है परन्तु सबसे बड़ी कमी यह है कि वे सबकुछ ज़ाहिर नहीं कर पाती । कभी मर्यादा तो कभी समाज और कभी परिवार के दबाव में वह सबकुछ सहती चली जाती हैं । यही दबाव आगे जाकर तनाव बन जाता है और यही बढ़ता तनाव कब शोषण बन जाता है इसका पता भी नहीं चलता । असल में स्त्रियां विद्रोही स्वभाव की नहीं होती, मगर कुछ तत्वों से कुंठित होकर वे विद्रोही जरूर बन जाती हैं और उनका यह विद्रोही स्वभाव किसी को रास नहीं आता। उनका यह स्वभाव हमेशा के लिए ना तो स्त्रियों के लिए अच्छा है और ना ही समाज के लिए । ज़ाहिर है इसके लिए विद्रोह उत्पन्न कर रहे तत्त्वों की पड़ताल और उसपर कार्यवाही करने की जरूरत है तभी इस स्थिति में बदलाव संभव है।
स्त्रियों को हक और सम्मान की लड़ाई आखि़र क्यों लड़नी पड़ रही है ? यदि उसका जो है उसको पाने के लिए जतन और यत्न के बदले साझा प्रेम से उसे मिल जाए, तो वह बेचारी क्यों ही इस युद्ध करती। जो हाल स्त्रियों का सदा से रहा है उसे बिगाड़ने में उनका भी हाथ निश्चित तौर पर रहा है मगर फ़िर भी वे प्राकृतिक रूप से सम्मान की पात्र है। हर मुश्किल क़िरदार ईश्वर ने उनके लिए चुना है और वह अपने क़िरदार के अनुकूल भी है । फ़िर भी अतिरिक्त कार्यभार और दबाव से वह खोखली होती जा रही हैं। अपनी काबिलियत को साबित करने के चक्कर में वे अपनी असली पहचान को खोती जा रही हैं।
सबकुछ स्त्रियां आसानी से सह लेती, यदि उनको समाज और परिवार की तरफ से प्रोत्साहन, सम्मान तथा प्यार मिल पाता। अपने सम्मान और प्यार के लिए जो लड़ाई महिलाओं ने शुरू किया था, आज उसका स्वरूप एवम दिशा दोनों ही बदल गया है। आज नारीवादी आंदोलनों ने महिलाओं को हर क्षेत्र में मुखर और प्रखर बनाने के लिए जो प्लेटफार्म तैयार किया है उससे नारी की एक बिल्कुल अलग छवि निकलकर सामने आ चुकी है। वह एक तरफ तो बिल्कुल सशक्त दिखती है परन्तु दूसरी तरफ नारियों के भाव में परंपरागत तरीके से हो रहे विलोपन और उसके सांस्कृतिक रूप से हो रहे छवि परिवर्तन को वह खुद भी स्वीकार नहीं कर पा रही है।
शुरुआत से ही एक महिला होने के नाते महिला मुद्दे मुझे अंदर तक झकझोरते रहें हैं। ना चाहते हुए भी इन मुद्दों पर अपनी राय को रखना आदत में शुमार होता चला गया। और मुझे पता नहीं चला कब मैं भी महिला मुद्दों को लेकर गहराई में उतरती गई और इसको विभिन्न मंचों पर उठाती व लिखती गई । सुना था कि कुछ शब्द, बड़े से बड़े और छोटे से छोटे लोगों की जिंदगी को बदल देने के लिए पर्याप्त होते हैं। यही सोचकर मैं क़लम चलाती रही कि कभी तो मेरे शब्द किसी को प्रभावित करेंगे और कभी तो ये शब्द उस तक दस्तक देंगे, जहां इसकी आवश्यकता है। लेकिन अभी इस मामले में मैं ख़ुद को असफल ही मानती हूं, क्योंकि यह कोई नया काम नहीं है। मेरे लिखने से पहले भी महिला मुद्दों पर बहस जारी थी और अब भी जारी है । नया तो तब होगा जब मेरे लिखें शब्दों से किसी महिला की स्थिति या नियती बदल जाए । एक महिला कल भी मुद्दा बनी हुई थी और आज भी बनी हुई है । कल भी महिला शोषण और प्रताड़ना का मंज़र मौजूद था और आज भी है। बस बदल गया है उसका आयाम और पैमाना ।
स्त्री विमर्श पर लिखने की नाकाम कोशिश मैं करती जा रही हूं, ताकि मुझे कभी यह ना लगे कि मैंने कुछ भी नहीं किया। मासूम बच्चियों के साथ जब-जब दुराचार के मामले को सुनती हूं, तो औरों की तरह मेरा भी खून खौल उठता है । तब मैं लिख देती हूं जो भी मेरे भीतर को कुरेद रहा होता है। मैं चुप नहीं बैठ सकती, ये मेरे भीतर से अंतरात्मा आवाज़ देती रहती है। मैं जानती हूं कि मेरे लिखने मात्र से कुछ नहीं सुधरेगा, मगर ये सोच कर मैं कोशिश करना छोड़ नहीं सकती । शायद कभी तो मेरे तीक्ष्ण शब्द किसी को प्रभावित या प्रेरित करेंगे और शायद तब बदलाव आए, यह सोचकर मैं लिखती रहती हूं और कामना करती हूं कि मेरे इस मुहिम में सारी महिलाएं साथ रहें। मेरे इस किताब को पढ़ने के बाद यदि आप सब महिला मुद्दों पर चुप नहीं बैठेंगे या प्रस्तुत विभिन्न गंभीर विषयों को दूसरों से साझा करेंगें तो मुझे लगेगा कि मेरा प्रयास सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहा है।
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